बिरसा मुंडा मिशनरियों, महाजनों, हिंदू भूस्वामियों और ब्रिटिश सरकार को खदेड कर आदिवासी मुंडा राज्य स्थापित करना उनका सपना था।
✍️जुबेर निजामी की रिपोर्ट
अलीराजपुर:- उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियों के दौरान देश के विभिन्न भागों में आदिवासी समूहों ने बदलते कानूनों, अपने व्यवहार पर लगी पाबंदियों, नए करों और व्यापारियों व हिंदू महाजनों द्वारा किए जा रहे शोषण के खिलाफ़ कई बार बग़ावत की। 1831-1832 में कोल आदिवासियों ने और 1855 में संथालों ने बग़ावत कर दी थी। मध्य भारत में बस्तर विद्रोह 1910 में हुआ और 1940 में महाराष्ट्र में वर्ली विद्रोह हुआ। महामानव क्रांतिसुर्य बिरसा मुंडा जिस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे, वह भी इसी तरह का विद्रोह था।
मुंडा बिरसा का जन्म 1870 के दशक के मध्य में हुआ। उनके पिता गरीब थे। बिरसा का बचपन भेड़ – बकरियाँ चराते, बाँसुरी बजाते और स्थानीय अखाड़ों में नाचते-गाते बीता था। उनकी परवरिश मुख्य रूप से बोहोंडा के आसपास के जंगलों में हुई। गरीबी से लाचार बिरसा के पिता को काम की तलाश में जगह-जगह भटकना पड़ता था। बचपन में ही बिरसा ने अतीत में हुए मुंडा विद्रोहों की कहानियाँ अपने बुजुर्ग से सुन हुई थीं। उन्होंने कई बार समुदाय के सरदारों (मुखियाओं ) को विद्रोह का आह्वान करते देखा था। बिरसा मुंडा के समुदाय के लोग ऐसे स्वर्ण युग की बात किया करते थे जब मुंडा लोग दीकुओं के उत्पीड़न से पूरी तरह आज़ाद थे। सरदारों का कहना था कि एक बार फिर उनके समुदाय के परंपरागत अधिकार बहाल हो जाएँगे। वे खुद को इलाके के मूल निवासियों का वंशज मानते थे और अपनी ज़मीन की लड़ाई (मुल्क की लड़ाई) लड़ रहे थे। वे लोगों को याद दिलाते थे कि उन्हें अपना साम्राज्य वापस पाना है।
बिरसा स्थानीय अंग्रेजो की मिशनरी स्कूल में जाने लगे जहाँ उन्हें मिशनरियों के उपदेश सुनने, अंग्रेजो की करतूत से वे आहत थे वहाँ भी उन्होंने यही सुना कि मुंडा समुदाय स्वर्ग का साम्राज्य हासिल कर सकता है और अपने खोये हुए अधिकार वापस पा सकता है। अगर वे अच्छे ईसाई बन जाएँ और अपनी “खराब आदतें” छोड़ दें तो ऐसा हो सकता है। उनका मन वहाँ नहीं लगा स्कूल जाना छोड़ दिया,बाद में बिरसा ने एक जाने-माने वैष्णव धर्म प्रचारक के साथ भी कुछ समय बिताया। उन्होंने जनेऊ धारण किया और शुद्धता व दया पर जोर देने लगे। लेकिन अपनी किशोरावस्था में बिरसा ने जिन आदिवासियत के विचाराओं के संपर्क में आए, उनसे वह काफ़ी गहरे तौर पर प्रभावित थे। बिरसा का आंदोलन आदिवासी समाज को सुधारने का आंदोलन था। उन्होंने मुंडाओं से आह्वान किया कि वे शराब पीना छोड़ दें, गाँवों को साफ़ रखें और डायन व जादू-टोने में विश्वास न करें। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि बिरसा ने मिशनरियों और हिंदू ज़मींदारों का भी खुलकर विरोध किया। वह उन्हें बाहर का मानते थे,जो मुंडा जीवन शैली और संस्कृति को नष्ट कर रहे थे।
1895 में बिरसा ने आदिवासी सगाजनों और अपने अनुयायियों से आह्वान किया कि वे अपने गौरवपूर्ण अतीत को पुनर्जीवित करने के लिए संकल्प लें। वह अतीत के एक ऐसे स्वर्ण युग – सतयुग – की चर्चा करते थे, जल,जंगल और जमीन का आदिवासियों को मुलमालिक मानते थे,जब वह लोग अच्छा जीवन जीते थे, तटबंध बनाते थे, कुदरती झरनों को नियंत्रित करते थे, पेड़ और बाग लगाते थे, पेट पालने के लिए खेती करते थे। उस काल्पनिक युग में मुंडा अपने बिरादरों और रिश्तेदारों का खून नहीं बहाते थे। वे ईमानदारी से जीते थे। बिरसा चाहते थे कि लोग एक बार फिर अपनी ज़मीन पर खेती करें, एक जगह टिक कर रहें और अपने खेतों में काम करें।
अंग्रेजों को बिरसा के आंदोलन से बहुत परेशानी थी
अंग्रेज़ों को बिरसा आंदोलन के राजनीतिक उद्देश्यों से बहुत ज्यादा परेशानी थी। यह आंदोलन मिशनरियों, महाजनों, हिंदू भूस्वामियों और सरकार को बाहर निकालकर बिरसा के नेतृत्व में मुंडा राज स्थापित करना चाहता था।
यह आंदोलन इन्हीं ताकतों को मुंडाओं की सारी समस्याओं व कष्टों का स्रोत मानता था। अंग्रेज़ों की भूनीतियाँ उनकी परंपरागत भूमि व्यवस्था को नष्ट कर रही थीं, हिंदू भूस्वामी और महाजन उनकी ज़मीन छीनते जा रहे थे और मिशनरी उनकी परंपरागत संस्कृति की आलोचना करते थे।
जब आंदोलन फैलने लगा तो अंग्रेज़ों ने सख्त कार्रवाई का फ़ैसला लिया। उन्होंने 1895 में बिरसा को गिरफ़्तार किया और दंगे-फ़साद के आरोप में दो साल की सज़ा सुनायी।
सामाजिक कार्यक्रता भंगुसिंह तोमर जिलाध्यक्ष आदिवासी कर्मचारी अधिकारी संगठन (आकास) जिला अलीराजपुर ने कहा कि 1897 में जेल से लौटने के बाद बिरसा समर्थन जुटाते हुए गाँव-गाँव घूमने लगे। उन्होंने लोगों को उकसाने के लिए परंपरागत प्रतीकों और भाषा का इस्तेमाल किया।
वे आह्वान कर रहे थे कि उनके नेतृत्व में साम्राज्य की स्थापना के लिए बाहरी लोग (दीकु और यूरोपीयों) को तबाह कर दें। बिरसा के अनुयायी दीकु और यूरोपीय सत्ता के प्रतीकों को निशाना बनाने लगे। उन्होंने थाने और चर्चों पर हमले किए और महाजनों व ज़मींदारों की संपत्तियों पर धावा बोल दिया। सफ़ेद पर लाल रंग का झंडा बिरसा राज का प्रतीक था।
सन् 1900 में बिरसा की हैजे से मृत्यु हो गई और आंदोलन ठंडा पड़ गया। यह आंदोलन दो मायनों में महत्त्वपूर्ण था। पहला, इसने औपनिवेशिक सरकार को ऐसे कानून लागू करने के लिए मज़बूर किया जिनके ज़रिए दीकु लोग आदिवासियों की ज़मीन पर आसानी से कब्ज़ा न कर सकें। दूसरा, इसने एक बार फिर जता दिया कि अन्याय का विरोध करने और औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध अपने गुस्से को अभिव्यक्त करने में आदिवासी सक्षम हैं। उन्होंने अपने ख़ास अंदाज़ में, अपनी ख़ास रस्मों और संघर्ष के प्रतीकों के ज़रिए इस काम को अंजाम दिया,और आदिवासियों को जल,जंगल एवं जमीन अपनी विराट आदिवासियत संस्कृति संरक्षण का अधिकार दिलाया।
भंगुसिंह तोमर
जिलाध्यक्ष :-आदिवासी कर्मचारी – अधिकारी संगठन (आकास)